Explainer: जानिए कब और कैसे हुआ साइमन कमीशन का गठन?

1920 के दशक में, भारत में विभिन्न क्रांतिकारी आंदोलनों की वजह से आम जनता के मन में स्वाभिमान की भावना जाग उठी। इस दौरान जनजागृति आने और जनता के मन में सरकार के प्रति सम्मान कम होता देख शासन सुधार के नाम पर सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में पार्लियामेंटरी समिति इन्डियन स्टेच्युटरी कमीशन' का गठन किया गया, जिसे साइमन आयोग (कमीशन) के नाम से भी जाना जाता है। भारत में साइमन कमीशन के गठन से लेकर उसके विरोध तक की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने से पहले यूपीएससी में पूछे गए प्रश्न और आधुनिक भारत के पाठ्यक्रम पर डालते हैं एक नज़र।

यूपीएससी में पूछा गया प्रश्न : 'साइमन कमीशन भारतीयों की आँखों में धूल झोंकने का एक तरीका था और उनके जले पर नमक छिड़कने का प्रयास', विवेचना कीजिए।

जनजागृति और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार

भारत सरकार अधिनियम, 1919 में प्रावधान था कि दस वर्ष बाद (यानी 1929 में) शासन योजना की प्रगति का अध्ययन करने और नए कदमों का सुझाव देने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाएगा। 1920 के दशक के द्वितीयार्ध में धीरे-धीरे देश की परिस्थिति में बहुत कुछ परिवर्तन आ चुका था। लोगों के मन में भय और कुंठा की जगह आक्रामकता और स्वाभिमान ने जगह ले ली थी। गांधीजी के लेखों-प्रवचनों से जनता में जागृति आ गई थी। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और खादी के प्रचार-प्रसार से साम्राज्यवादियों की आमदनी कम हो चुकी थी। असहयोग आन्दोलन से सरकारी काम-काज ठप्प हो चुका था। लोगों के दिलों से सरकार का डर दूर हो चुका था। क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों ने अपना रंग ज़माना शुरू कर दिया था। साम्यवादियों के उदय से श्रमिक वर्ग का क्षोभ हड़तालों के रूप में प्रकट हो रहा था। जगह-जगह किसानों और निम्न जातियों का आन्दोलन अपना व्यापक प्रभाव दिखा रहा था।

कैसे आया अंग्रेज़ अधिकारियों के मन में डर

चंपारण सत्याग्रह से शुरू हुआ सत्याग्रह आन्दोलन इतना विस्तार पा चुका था कि ब्रिटिश सरकार के मन में यह दहशत समा गई थी कि कहीं 1857 की तरह का विद्रोह न भड़क जाए। क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों की गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ अधिकारियों के मन में डर समाया रहता था। दुनिया में अंग्रेज़ों की इज़्ज़त कम हो रही थी। इन सब से परेशान होकर, नियत समय से दो साल पहले ही, लिबरल पार्टी के स्टेनली बाल्डविन के प्रधानमंत्रित्व काल में, ब्रिटिश सरकार ने शासन सुधार के नाम पर एक पार्लियामेंटरी समिति 'इन्डियन स्टेच्युटरी कमीशन' का गठन किया। इसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे। इसीलिए इसे साइमन आयोग (कमीशन) भी कहा जाता है।

Explainer: जानिए कब और कैसे हुआ साइमन कमीशन का गठन?

साइमन आयोग (कमीशन) का गठन

8 नवम्बर, 1927 को इस कमीशन के नियुक्ति की सूचना भारत में की गई थी। इस कमीशन का उद्देश्य था कि वह भारत में घूमकर स्थिति को समझे और तंत्र में सुधार के उपाए सुझाए ताकि भारतीयों को राहत दी जा सके। लेकिन यह मात्र दिखावा था। ब्रिटेन की लिबरल सरकार द्वारा गठित आयोग में अध्यक्ष सहित कुल सात सदस्य थे। इसमें ब्रिटेन के तीनों प्रमुख राजनीतिक दलों, कन्ज़र्वेटिव, लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि, सर जॉन साइमन, (लिबरल, अध्यक्ष), क्लेमेंट एटली, (लेबर), वर्नोन हार्टशोर्न, (लेबर), एडवर्ड कैडोगन (कंजर्वेटिव), जॉर्ज लेन-फॉक्स, (कंजर्वेटिव), हैरी लेवी-लॉसन, प्रथम विस्काउंट और डोनाल्ड हॉवर्ड, तीसरा बैरन, शामिल किए गए थे। क्लेमेंट एटली आगे चलकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने। आयोग केवल ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।

नस्लभेद का एक घिनौना उदाहरण: साइमन कमीशन

यह सब उस समय के भारत मंत्री लॉर्ड बर्किनहैड के दिमाग की उपज थी। हॉउस ऑफ कामंस में उसने कहा था, "क्या इस पीढी, दो पीढ़ियों या सौ सालों में भी ऐसी संभावना दिखाई पड रही है, कि भारत के लोग सेना, नौसेना तथा प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण संभालने की स्थिति में हो जाएंगे और उनका एक गवर्नर जनरल होगा, जो इस देश की किसी भी सत्ता के प्रति नहीं, अपितु भारतीय सरकार के प्रति उत्तरदायी होगा?" भारतीयों को अपमानित करने के उद्देश्य से आयोग में किसी भी भारतीय सदस्य को नहीं लिया गया था। यह नस्लभेद का एक घिनौना उदाहरण था। भारतीयों ने इसे अपना अपमान समझा। उन्होंने इसका विरोध करने का निश्चय किया। कांग्रेसियों ने इसे 'श्वेत कमीशन' कहा।

गांधीजी को इरविन से मिलने का बुलावा

1 अप्रैल, 1926 को लॉर्ड इरविन नए वायसराय के रूप में भारत पहुंचा। उसने अक्टूबर, 1927 में गांधीजी को मिलने के लिए बुलावा भेजा। गांधीजी उस समय बंगलोर में थे। सारा कार्यक्रम रद्द कर वे दिल्ली पहुंचे। इरविन ने उन्हें यह सूचना दी कि भारत में वैधानिक सुधार लाने के लिए एक रिपोर्ट तैयार की जा रही है, जिसके लिए एक कमीशन बनाया गया है, जिसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन होंगे। गांधीजी ने पूछा, "क्या बस यही काम है?" इरविन ने कहा, "बस यही।" गांधीजी ने जवाब दिया, "यह संदेश तो एक आने के लिफाफे द्वारा भी दे सकते थे।" वायसराय कमीशन के प्रति सबकी सद्भावना प्राप्त करना चाहता था। लेकिन गांधीजी को इस कमीशन की उपयोगिता में बिल्कुल भी श्रद्धा नहीं थी। साइमन कमीशन के सात सदस्यों में से एक भी भारतीय को सदस्य नहीं रखा गया था। गांधीजी ने इसे भारतीय नेताओं का अपमान माना और बिना किसी टिपण्णी के वापिस लौट आए।

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साइमन कमीशन का बहिष्कार

दिसंबर, 1927 के मद्रास कांग्रेस अधिवेशन, जिसमें गांधीजी ने भाग नहीं लिया था, में कांग्रेस के अध्यक्ष एम्.एन. अंसारी ने आयोग के बायकॉट करने का फैसला लिया। उन्होंने कहा था, "साइमन आयोग की नियुक्ति द्वारा निश्चय ही यह साबित कर दिया गया है कि लोकप्रिय सरकार की स्थापना में उठाये जाने वाले किसी भी कदम या स्वराज संबंधी अपनी योग्यता-अयोग्यता की जांच-पड़ताल में हम पक्ष नहीं हो सकते। आयोग में जानबूझ कर भारतीयों को शामिल न करके उनके आत्मसम्मान को आहत किया गया है।" उनके इस वक्तव्य ने लिबरल फेडरेशन के तेजबहादुर सप्रू जैसे बहुत से उदारवादियों को आकर्षित किया।

काले झंडे और 'साइमन गो बैक'

हालांकि, दक्षिण में जस्टिस पार्टी ने सरकार का समर्थन किया था, लेकिन जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का एक गुट, हिन्दू-महासभा, कम्युनिस्ट पार्टी, किसान मजदूर पार्टी, फिक्की और अन्य दलों ने भी साइमन कमीशन के बहिष्कार का निश्चय किया। जब 1928 का साल शुरू हुआ तो देश में साइमन कमीशन की नियुक्ति पर रोष तो था ही, लॉर्ड इरविन ने घोषणा कर दी थी कि यदि कमीशन के काम में भारतीयों की सहायता नहीं मिली, तब भी कमीशन अपना काम चलाता रहेगा और पार्लियामेंट में रिपोर्ट पेश कर देगा। इस धमकी के बावजूद कोई भी कांग्रेसी नेता या डेलिगेशन कमीशन से नहीं मिला। जहां-जहां कमीशन गया उसे काले झंडे दिखाए गए और 'साइमन गो बैक' का नारा लगाया गया।

विरोध में देशव्यापी हड़ताल

3 फरवरी, 1928 को कमीशन बंबई बंदरगाह पर उतरा। उसके विरोध में देशव्यापी हड़ताल आयोजित की गई। दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, मद्रास, लहौर, लखनऊ, पेशावर और मध्य प्रांत के सभी 14 ज़िलों में हड़ताल पूरी तरह सफल रही। अपने ढ़ंग की यह पहली हड़ताल थी। बंबई का छात्र समुदाय काला झंडा लहराते हुए सड़कों पर निकल आया। सारा शहर बंद था। 30 हज़ार लोगों का शांतिपूर्ण जुलूस सारे शहर में घूमा। के.के. नरीमन ने बंबे यूथ लीग की विशाल जनसभा की। साइमन के साथ साथ कमीशन के अन्य सदस्यों स्टेनले बाल्डविन, बरकेनहेड और मैकडोनल्ड के पुतले जलाए गए। मद्रास में भी हड़ताल के साथ साथ 30 हज़ार लोगों की एक सभा हुई जिसकी अध्यक्षता एस. सत्यमूर्ति ने की। 19 फरवरी को साइमन के कलकत्ता पहुंचने पर भारी प्रदर्शन किया गया। 1 मार्च को कलकत्ता के सभी 32 वार्डों में एक साथ ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का अह्वान करने वाली सभाएं आयोजित की गईं। पुलिस ने सभी शहरों में प्रदर्शनकारियों पर डंडे बरसाए। दिल्ली में आयोग के स्वागत के लिए कोई भी भारतीय नहीं गया।

लाला लाजपत राय का निधन

30 अक्तूबर को पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक जुलूस लाहौर में सचिवालय के सामने इस कमीशन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा था। उस पर लाठीचर्ज कर दिया गया। वृद्ध अवस्था में भी लाला लाजपतराय को बुरी तरह पीटा गया। लालाजी उसके बाद कभी स्वस्थ नहीं हुए और 17 नवम्बर को उनका देहावसान हो गया। अपने घायल अवस्था में मृत्यु से पूर्व लाला लाजपत राय ने कहा था कि "मेरे ऊपर जिस लाठी से प्रहार किए गए हैं, वही लाठी एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।" लालाजी के देहावसान से सारा देश तिलमिला उठा। महात्मा गांधी ने भी लाला लाजपत राय की मृत्यु पर खेद प्रकट करते हुए कहा था कि "भारतीय सौर मंडल का एक सितारा डूब गया है। लाला जी की मृत्यु ने एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है, जिसे रना अत्यंत कठिन है। वे एक देशभक्त की तरह मरे हैं और मैं अभी भी नहीं मानता हूँ कि उनकी मृत्यु हो चुकी है, वे अभी भी जिंदा है।"

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'साइमन वापस जाओ' का नारा

28-30 नवंबर को लखनऊ में साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस निकला, जिसका नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू ने किया था। जवाहरलाल नेहरू और गोविंदवल्लभ पंत पर लाठीचार्ज हुआ। किसी तरह वे बच गए। इसके अलावा लखनऊ में खलीकुज्जमा ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया था। ताल्लुकदारों द्वारा कैसरबाग़ में साइमन आयोग के लिए स्वागत समारोह में ख़लीक़ुज़्ज़मां ने ऐसी पतंगे और गुब्बारे उड़ाए जिन पर 'साइमन वापस जाओ' लिखा था। मद्रास में साइमन कमीशन का विरोध टी प्रकाशम के नेतृत्व में किया गया था। सारे देश में लोगों ने यातना सहकर भी कांग्रेस के अभियान को पूर्ण समर्थन दिया। 'गो बैक' का उद्घोष चारों ओर गूंजता था। इस 'गो बैक' के नारों से परेशान साइमन कमीशन बड़ी फजीहत लेकर इंग्लैंड लौट गया।

आयोग की सिफारिशें - 'रद्दी की टोकरी में फैंकने के लायक़'

साइमन आयोग ने अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया जिसे जून, 1930 में प्रकाशित किया गया। इसमें द्वैध शासन को समाप्त करने और प्रान्तों को स्वायत्तता सौंपने की सिफारिश की गयी थी। भारतीयों के मताधिकार के विस्तार का भी प्रस्ताव था। साथ ही मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की बात की गयी थी। कौंसिलों में देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को शामिल करने का सुझाव था। सेना के भारतीयकरण का भी सुझाव था। स्वराज के बारे में कोई सुझाव नहीं था। इस रिपोर्ट में भारतीयों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों के अयोग्य बताया गया था, जिसे एक तरह से भारतीयों को अपमानित किया जाना ही माना जाना चाहिए।

राजनीतिक दस्तावेज़ के रूप में आयोग की रिपोर्ट कागजों का मात्र एक ऐसा पुलिंदा भर थी, जिसे सर शिवस्वामी अय्यर ने 'रद्दी की टोकरी में फैंकने के लायक़' बताया था। एक तरफ जहाँ इस आयोग में किसी भारतीय को शामिल न कर उनका अपमान किया गया वहीं दूसरी तरफ भारतीयों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों के अयोग्य बताया गया। अत: हम कह सकते हैं कि 'साइमन कमीशन भारतीयों की आँखों में धूल झोंकने का एक तरीका था और उनके ले पर नमक छिड़कने का प्रयास'।

साइमन कमीशन के बहिष्कार का प्रभाव और उपसंहार

साइमन आयोग की नियुक्ति ने न केवल पूर्ण स्वतंत्रता बल्कि समाजवादी तर्ज पर प्रमुख सामाजिक-आर्थिक सुधारों की मांग करने वाली भारतीय ताकतों को प्रोत्साहन दिया। वैसे तो साइमन कमीशन का गठन अंग्रेजों की औपनिवेशिक चाल का ही एक हिस्सा था, लेकिन यह दाव उनके लिए उलटा पड़ गया। नियत समय से दो साल पहले ब्रिटेन की लिबरल सरकार उस समय भारत में आयोग भेजना चाहती थी, जबकि देश में सांप्रदायिक दंगे उफान पर थे, भारत की एकजुटता नष्ट हो चुकी थी, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक ठहराव था और गांधीजी के नेपथ्य में चले जाने का कारण यह दिशाहीन थी। इस शाही आयोग की नियुक्ति इस उद्देश्य से की गयी थी कि आयोग यह समीक्षा करेगा कि भारत और अधिक सुधारों और संसदीय जनतंत्र के योग्य हुआ है या नहीं।

साइमन आयोग-भारतीय जनता का अपमान

साम्राज्यवादियों को विश्वास था कि सुधारों के प्रस्तावों पर नियत समय से दो साल पहले काम शुरू करके राष्ट्रीय आन्दोलन को बढ़ने से रोक दिया जाएगा। लेकिन घोषणा के बाद आक्रोश का ऐसा तूफ़ान उठा जिसने उनकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया। भारतवासियों ने इस आयोग को भारतीय जनता पर एक अपमान और धब्बा के रूप में लिया। साइमन कमीशन के बहिष्कार से देश की सोई राजनीति में एक उफान सा आ गया। इसने कांग्रेस के टिमटिमाते दिए में फिर से जान ूँक दी। इधर-उधर बिखरे हुए सारे राजनैतिक दल एक मंच पर आ गए।

..जब राष्ट्रीय संघर्ष में एकता का नारा बना 'साइमन लौट जाओ'

'साइमन लौट जाओ' के नारे ने राष्ट्रीय संघर्ष में एकता का एक विश्वास पैदा किया। साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध में सब दल एक हो गए। पहली बार बड़ी संख्या में मज़दूरों और छात्रों ने भी बहिष्कार के निर्णय में कांग्रेस का साथ दिया। हालांकि देश ने लालाजी जैसे महान सपूत को खोया था, लेकिन जवाहर लाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस युवाओं और छात्रों की नई लहर के नेता के रूप में उभरे। साइमन आयोग के कारण संवैधानिक सुधार तात्कालिक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था। साइमन आयोग के बहिष्कार का परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही दिनों बाद सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रूप में देश ने साम्राज्यवादियों से संघर्ष किया और मार्च, 1931 के गांधी-इरविन समझौते तक राष्ट्रीय आन्दोलन ने लगभग समानता की स्थिति प्राप्त कर ली थी। गांधीजी के साथ बराबरी से बात करके इरविन ने उन्हें एक नया क़द प्रदान किया। अत: निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि साइमन कमीशन की नियुक्ति से भारतीयों दलों में व्याप्त आपसी फूट एवं मतभेद की स्थिति से उबरने एवं राष्ट्रीय आन्दोलन को उत्साहित करने में सहयोग मिला।

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English summary
Read all about the Simon Commission of India and why it came into existence two years ahead of schedule. UPSC notes for general studies: modern history.
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