Explainer- जालियावाला बाग हत्या-कांड

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसी तारीखें हैं, जिसमें घटित घटना को कभी नहीं भुलाया जा सकता। 13 अप्रैल 1919 उन तारीखों में से एक है जो अंग्रेजों के अमानवीय और क्रूर चेहरे को सामने ला देती है। पंजाब में सिखों का पवित्र नगर अमृतसर उन घटनाओं का रंगमंच था। यह ऐसी घिनौनी घटना थी जिसके बारे में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को कहना पडा, "मैं उन सभी विशिष्टताओं का परित्याग करके अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा हूँ जिन्हें तुच्छ समझकर ऐसे अपमानों द्वारा पीड़ित किया गया जो मनुष्य के लिए नहीं है।"

1919 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जस्टिस रौलट की अध्यक्षता में देशद्रोह के बारे में क़ानून बनाने के लिए एक समिति गठित की गई। इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बिल (रौलेट विधेयक) पेश किया गया था जो भारत की रक्षा विनियम अधिनियम 1915 का विस्तार था और थोड़ी औपचारिकता के बाद उसे पारित कर दिया गया। इस विधेयक द्वारा सरकार का उद्देश्य युद्धकालीन भारत रक्षा अधिनियम (1915) के दमनकारी प्रावधानों को स्थायी कानून द्वारा प्रतिस्थापित करना था। 22 मार्च, 1919 को वायसराय के हस्ताक्षर हो जाने बाद यह क़ानून बन गया जिसका नाम था 'Anarchical & Revolutionary Crime Act, 1919' (अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919)। इस विधेयक के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार नहीं था। मुकदमे के फैसले के बाद किसी उच्च न्यायालय में अपराधी को अपील करने का भी अधिकार नहीं था।

Explainer- जालियावाला बाग हत्या-कांड

जजों को बिना जूरी की सहायता से सुनवाई करने का अधिकार दिया गया। इन केसों को बंद कोर्टों में चलाने का प्रावधान था, ताकि किसी को इसका पता भी न चले। ग़ुलामी की बेड़ियां और सख़्त करने की यह चाल थी। उन दिनों इस बिल का वर्णन आम तौर पर इन शब्दों में किया जाता था, "न वकील, न अपील, न दलील"। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया और प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन करने का प्रावधान था।

उस समय सारे देश में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सभी स्तरों पर गहरा आक्रोश था। गांधीजी के आह्वान पर इस क़ानून के विरोध में रौलेट सत्याग्रह आन्दोलन आरंभ हुआ। रविवार 6 अप्रैल 1919 को सारे देश में सत्याग्रह दिवस मनाया गया। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ़ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे ईनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया। सारे उत्तर भारत में जबरदस्त हड़ताल हुई। लाहौर, अमृतसर, अंबाला, जलंधर में आन्दोलन की आग तेज़ हो गई।

13 अप्रैल को जालियावाला बाग ह्त्या-कांड

रौलेट सत्याग्रह आंदोलन पंजाब के अमृतसर में जोर पकड़ रहा था। शुरुआत में प्रदर्शनकारियों ने कोई हिंसा नहीं की। भारतीयों ने अपनी दुकानें और सामान्य व्यापार बंद कर दिया और वीरान और सुनसान सड़कों ने अंग्रेजों की चालबाजियों के ख़िलाफ़ भारतीयों की नाराजगी को दिखाया। 9 अप्रैल को, दो राष्ट्रवादी नेताओं, सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने, उनके द्वारा किए गए बिना किसी उकसावे के, रौलट-एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया, सिवाय इसके कि उन्होंने विरोध सभाओं को संबोधित किया था, और उन्हें किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया था। इसके कारण अमृतसर के साथ सारे पंजाब के लोगों में भयंकर रोष फैल गया था।

10 अप्रैल को अमृतसर के लोगों द्वारा सरकार से उनकी रिहाई की मांग के लिए प्रदर्शन किया गया। किन्तु जनता और प्रदर्शनकारियों की मांग को नकार दिया गया। जल्द ही विरोध हिंसक हो गया क्योंकि पुलिस ने फायरिंग का सहारा लिया था, जिसमें कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी। इसके कारण गुस्साये लोगों ने रेलवे स्टेशन, टाउन हॉल सहित कई बैंकों और अन्य सरकारी इमारतों पर हमले किये और आग लगा दी। इससे ब्रिटिश अधिकारियों का संचार माध्यम बंद हो गया और रेलवे लाइन्स भी क्षतिग्रस्त हो गई थी। यहाँ तक कि 5 ब्रिटिश अधिकारीयों की मृत्यु हो गई। हालाँकि इसके साथ ही कुछ भारतीयों को भी अपनी जान गवानी पड़ी थी। स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई कि सेना को बुलाना पड़ा। ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी थे जिनके पास मार्शल लॉ लागू करने और व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेदारी थी। उन्होंने भड़की हिंसा को दबाने के लिए अमृतसर में कर्फ्यू लगा दिया था। 11 अप्रैल की रात में जनरल डायर ने सेना लेकर शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और बात की बात में शहर शांत हो चुका था और जो विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, वे शांतिपूर्ण थे। ब्रिगेडियर-जनरल ने जो पहला निषेधाज्ञा जारी किया वह था लोगों को बिना पास के शहर छोड़ने और प्रदर्शनों या जुलूसों के आयोजन, या तीन से अधिक के समूहों में इकट्ठा होने से मनाही थी।

Explainer- जालियावाला बाग हत्या-कांड

अमृतसर में 'हड़ताल' में शामिल होने वाले कुछ नेताओं ने 12 अप्रैल 1919 को रॉलेट एक्ट के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने और गिरफ्तार किये गये दोनों नेताओं को जेल से रिहा करवाने के लिए बैठक की। इसमें उन्होंने यह निर्णय लिया कि अगले दिन जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक विरोध सभा आयोजित की जाएगी। 13 अप्रैल सन 1919 का दिन बैसाखी का पारंपरिक त्यौहार का दिन था। अमृतसर में इस दिन सुबह के समय सभी लोग गुरूद्वारे में बैसाखी का त्यौहार मनाने के लिए इकठ्ठा हुए थे। इस गुरूद्वारे के पास में ही एक बगीचा था जिसका नाम था जलियांवाला बाग़। गाँव के लोग अपने परिवार वालों के साथ, तो कुछ अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गए थे। उन लोगों ने किसी तरह की गड़बड़ी मचाने की कोशिश नहीं की। उनमें से बहुत औरतें और बच्चे भी थे। स्थानीय नेताओं द्वारा विरोध प्रदर्शन के लिए वहाँ एक सभा भी आयोजित की गयी थी। इस भीड़ को यह पता भी नहीं था कि सभाओं पर निषेधाज्ञा लागू है।

उपलब्ध आंकड़ों से यह स्पष्ट नहीं है कि 20,000 उपस्थित लोगों में से कितने राजनीतिक प्रदर्शनकारी थे, लेकिन उनमें से अधिकांश वे थे, जो उत्सव के लिए एकत्र हुए थे। इस बीच, बैठक शांतिपूर्ण ढंग से चली थी, और दो प्रस्ताव पारित किए गए थे, एक रोलेट एक्ट को निरस्त करने के लिए और दूसरा 10 अप्रैल को हुई गोलीबारी की निंदा करने के लिए। इस जनसभा की जनरल डायर से मुखबिरी हंसराज नामक भारतीय ने किया था और उसके सहयोग से इस हत्याकांड की साज़िश रची गयी थी। उसी ने जनरल डायर को खबर की थी कि जलियांवाला बाग़ में कुछ लोग विरोध प्रदर्शन करने के लिए इकठ्ठा हो रहे हैं। तब जनरल डायर ने करीब शाम 5:30 बजे अपने सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग में प्रवेश किया। वहां से बाहर जाने वाले रास्ते को उसने बंद कर दिया था, और वहाँ उपस्थित लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। उपस्थित लोगों को किसी प्रकार की चेतावनी भी नहीं दी गई। डायर के सैनिकों ने लगभग 10 मिनिट तक भीड़ पर गोलियां दागी, जिससे वहां भगदड़ मच गई। दस मिनट में 1650 चक्र गोलियां चलायी गई। अभी भाषण चल ही रहे थे कि सभा की जगह नरमेध की जगह बन गई। वहां न सिर्फ युवा एवं बुजुर्ग उपस्थित थे बल्कि वहां बच्चे एवं महिलाएं भी त्यौहार मनाने के लिए गये हुये थे। वहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं था।

इस बाग का केवल एक दरवाज़ा था और वह भी काफी संकरा था। उस द्वार पर जनरल डायर ने अपने सैनिकों को तैनात कर रखा था, जिनके हाथों में बंदूकें थीं। पार्क छह फीट ऊंची दीवार से घिरा था। इस दीवार पर लोग चढ़ नहीं सकते थे। लोगों की स्थिति चूहेदानी में फंसे चूहे के समान हो गई थी। मौत के फंदे में फंस कर करीब डेढ़ हज़ार से ज़्यादा व्यक्ति मरे और चार हज़ार घायल हुए। जो क़त्ले-आम हुआ उसके कारण अमृतसर शब्द ही नरसंहार का पर्यायवाची बन गया। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने अधिकारिक रूप से मरने वालों का आंकड़ा 379 का बताया था।

इस बाग़ में एक कुआं भी मौजूद था। कुछ लोगों ने कुएं में कूद कर अपने प्राण बचाने की सोची। किन्तु कुएं में कूदने के बाद भी उनकी मृत्यु हो गई। पंजाब के कई जिलों में सैनिक शासन लागू कर दिया गया। सारे पंजाब में दमन और क्रूरता का नंगा नाच हुआ। अंधाधुंध गिरफ़्तारियां की गईं। लोगों को यातनाएं दी गईं। सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाए गए। अमृतसर में कमांडर जनरल डायर ने लोगढ़ गली से गुज़रने वालों को पेट से रेंगने के लिए बाध्य किया। लोगों को नंगा कर कोड़ों से पीटा गया।

Explainer- जालियावाला बाग हत्या-कांड

कमांडर जनरल डायर का स्पष्ट संकेत था कि भारत की जनता को ऐसा डरा दिया जाए कि दुबारा विरोध या हड़ताल करने की कोई हिम्मत न करे। पंजाब को चारो तरफ़ से सील कर दिया गया। वहां सख्त सेंसर लगा दिया गया। पंजाब शेष भारत से बिलकुल कट गया। न वहां से कोई ख़बर बाहर जाती थी न ही वहां जाना आसान था। वहां सैनिक क़ानून बहाल कर दिया गया। वहां के लोगों को लगभग एक महीना यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ा। उसके बाद जब कुछ सैनिक शासन में ढील दी गई तो वहां की बातों का पता लगा।

ब्रिटिश प्रशासन ने इस हत्याकांड की खबरों को दबाने की पूरी कोशिश की। किन्तु यह खबर पूरे देश में फ़ैल गई और इससे पूरे देश में व्यापक रूप से आक्रोश फ़ैल गया। इस घटना की जानकारी दिसंबर 1919 में ब्रिटेन तक पहुँच गई। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने यह माना कि जलियांवाला बाग में जो हुआ, वह बिलकुल सही हुआ। किन्तु कुछ लोगों द्वारा इसकी निंदा की गयी। डायर पर केस चला और वे दोषी ठहराये गये, उन्हें उनके पद से सस्पेंड कर दिया गया। साथ ही उन्हें भारत में सभी कर्तव्यों से छुटकारा दे दिया गया।

अप्रैल 1919 में 1857 के बाद से सबसे बड़ा और सबसे हिंसक ब्रिटिश विरोधी विद्रोह देखा गया। कहा जाता है कि पंजाब के उपराज्यपाल सर माइकल ओ'डायर ने हिंसक प्रदर्शनकारियों के खिलाफ विमानों का इस्तेमाल किया था। निर्दोष लोगों पर बम बरसाए गए। पंजाब के गवर्नर सर माइकेल ओ डायर और उनके सलाहकारों के मन में यह भय समा गया था कि अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का षड्यंत्र रचा गया है और इसके पीछे गांधीजी का हाथ है। पंजाब के लोग गांधीजी को आने का निमंत्रण देते, पर सरकार गांधीजी को वहां जाने की अनुमति नहीं देती।

गांधीजी आश्रम से बाहर ही नहीं निकल सकते थे। भारत सरकार का मानना था कि देश में जो कुछ भी हो रहा है, वह गांधीजी की अपील का नतीजा है। सरकार ने उनके कहीं आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सरकार यह समझती थी कि वे जहाँ भी जाएँगे वहां शांति को खतरा उत्पन्न होगा। उधर दूसरी तरफ़ कुछ पंजाबी युवक गांधीजी को दोष देते कि उनके कारण ही पंजाब पर मार्शल लॉ लाद दिया गया है। अगर गांधीजी पंजाब गए तो उन्हें जान से मार दिया जाएगा। गांधीजी के जिवनीकार विन्सेंट शीन कहते हैं, "जिस व्यक्ति ने शांति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो, उसे ही सार्वजनिक व्यवस्था का दुश्मन और हिंसा का हिमायती या हवा देने वाला करार किया गया।"

अमृतसर हत्याकांड पर जांच की हंटर समिति

जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने भारतीयों और कई अंग्रेजों को भी झकझोर कर रख दिया। इन दंगों और क़त्लेआम के कारणों की जांच के लिए भारत के राज्य सचिव, एडविन मोंटेगु ने स्कॉटलैंड के पूर्व सॉलिसिटर-जनरल लॉर्ड विलियम हंटर की अध्यक्षता में समिति नियुक्ति की। आयोग का उद्देश्य "बॉम्बे, दिल्ली और पंजाब में हाल की गड़बड़ी की जांच करना, उनके कारणों और उनसे निपटने के लिए किए गए उपायों की जांच करना" था। इस समिति के सदस्यों में तीन भारतीय थे, सर चिमनलाल हरिलाल सीतलवाड़, बॉम्बे विश्वविद्यालय के कुलपति और बॉम्बे उच्च न्यायालय के वकील; पंडित जगत नारायण, वकील और संयुक्त प्रांत की विधान परिषद के सदस्य; और ग्वालियर राज्य के वकील सरदार साहिबजादा सुल्तान अहमद खान।

डायर को कमेटी के सामने बुलाया गया। उसे विश्वास था कि उसने जो किया है वह केवल उसका कर्तव्य था। हंटर आयोग के सामने डायर ने कहा, "मुझे केवल इस बात का दुख है कि मेरा गोला-बारूद ख़त्म हो गया था और संकरी गलियों के कारण बाग में बख्तरबंद गाड़ी नहीं लाई जा सकी थी - क्योंकि सवाल केवल भीड़ को तितर-बितर करने का नहीं रह गया था, बल्कि लोगों में असर कायम करना और एक नैतिक प्रभाव डालना था ताकि वे विद्रोह का झंडा बुलंद न कर सकें।" उसने यह भी कहा कि उसने शूटिंग के बाद घायलों की देखभाल करने का कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि वह इसे अपना काम नहीं मानता था।

मार्च 1920 में जारी अंतिम रिपोर्ट ने सर्वसम्मति से डायर के कार्यों की निंदा की। रिपोर्ट में कहा गया, "हमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि वे असर कायम करने और भारी नैतिक प्रभाव डालने में सफल हो गए थे, लेकिन इसका स्वरूप उस रसूख व प्रभाव से एकदम विपरीत था, जो कि उसने सोचा था।" रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि शुरुआत में लोगों को बाग से तितर-बितर होने की सूचना नहीं देना डायर की तरफ से एक त्रुटि थी; फायरिंग की लंबाई भी एक गंभीर त्रुटि दिखाटी है; पर्याप्त नैतिक प्रभाव पैदा करने के डायर के मकसद की निंदा की गयी थी; डायर ने अपने अधिकार की सीमा लांघ दी थी; पंजाब में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की कोई साजिश नहीं थी। हंटर कमेटी ने कोई दंडात्मक या अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की क्योंकि डायर के कार्यों को विभिन्न वरिष्ठों द्वारा माफ कर दिया गया था। गांधीजी ने भी अमृतसर की इस नृशंस हत्याकांड में शामिल अधिकारियों की निन्दा करते हुए भी उनको दंड देने की मांग नहीं की। उनमें बदला लेने की इच्छा नहीं थी, कोई विद्वेष भी नहीं था। उन्होंने कहा, "पागल से इर्ष्या करने से क्या लाभ है? लेकिन इस बात का ध्यान तो रखना होगा वह बिगाड़ न कर सके।"

लन्दन में स्पष्ट शब्दों में कहा गया, "हम उन सिद्धांतों का खंडन करते हैं जिनके आधार पर डायर ने कार्रवाई की थी और यह घोषणा करते हैं कि भारतीयों के घुटनों पर चलने को विवश करने वाला आदेश किसी भी सभ्य सरकार के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है।" हाउस ऑफ कॉमन्स में, उस समय युद्ध के राज्य सचिव चर्चिल ने अमृतसर में जो कुछ हुआ उसकी निंदा की। उसने इसे "राक्षसी" कहा। चर्चिल के साथ कैबिनेट ने सहमति व्यक्त की कि डायर एक खतरनाक व्यक्ति था और उसे अपने पद पर बने रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती थी। डायर को बर्खास्त करने के निर्णय से सेना परिषद को अवगत करा दिया गया था। ड़ायर को इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया। उसे इंगलैंड भेज दिया गया। उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई; उसने आधा वेतन लिया और अपनी सेना पेंशन प्राप्त की।

गैर सरकारी समिति बनाई गई

पंजाब के लगभग सभी नेता जेल में थे। इसलिए मालवीयजी के नेतृत्व में पंजाब को मदद करने का काम देश के अन्य नेताओं ने उठाया। सबसे पहले दीनबंधु एण्ड्र्यूज पंजाब पहुंचे। दीनबंधु से गांधीजी को पता चला कि समाचार पत्र में जो बातें आ रहीं हैं, उससे कहीं ज़्यादा वीभत्स अत्यचार हुए हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हंटर समिति का बहिष्कार करने का निश्चय किया। अमृतसर हत्याकांड की जाँच के लिए महामना मालवीयजी, मोतीलाल नेहरू, सी.आर.दास, एम.आर. जयकर, अब्बास तैयबजी और गांधीजी जैसे प्रसिद्ध वकीलों की गैर सरकारी समिति बनाई गई। इस समिति के सदस्य की हैसियत से अक्टूबर 1919 में गांधीजी अमृतसर पहुंचे। स्टेशन पर और उसके बाहर लाखों की भीड़ इकट्ठी थी। मालवीयजी, मोतीलाल नेहरू और स्वामी श्रद्धानंद भी अमृतसर पहुंचे। जांच के लिए गांधीजी ने पंजाब के विभिन्न भागों का दौरा किया। सभी वर्ग के लोगों से मिले। गांधीजी को पंजाब में चलाए गए सैनिक शासन के बारे में सत्य का पता लगा। गांधीजी ने रिपोर्ट ख़ुद लिखी। कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदारी से छानबीन के बाद जनता पर किए गए भयंकर अत्याचारों के बारे में जो अकाट्य तथ्य गांधीजी के हाथ में आये, वे दिल को दहला देने वाले थे। रिपोर्ट में अनेक हृदयद्रावक घटनाओं का वर्णन था। सरकार की कड़े शब्दों में निंदा की गई थी। उस रिपोर्ट की एक भी तथ्य का किसी ने खंडन नहीं किया।

परिणाम और उपसंहार

पंजाब के इस जालियांवाला बाग कांड ने लोगों में स्वराज पाने की मंशा को और अधिक बलवती किया। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस कांड से व्यथित होकर 30 मई 1919 को अपने विख्यात पत्र द्वारा 'नाइटहुड' का ख़िताब ब्रिटिश सरकार को लौटाते हुए देश की व्यथा और आक्रोश की अभिव्यक्ति दी। गांधीजी ने बोअर युद्ध के दौरान अपने काम के लिए अंग्रेजों द्वारा दी गई कैसर-ए-हिंद की उपाधि को त्याग दिया और कहा, "कोई भी सरकार सम्मान की पात्र नहीं है जो अपनी प्रजा की स्वतंत्रता को सस्ता रखती है।"

अमृतसर का नरसंहार एक दुखद, परन्तु निर्णायक घटना थी। इस घटना ने महात्मा गाँधी को बहुत ऊंचे आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। बहुत से नरमपंथी राष्ट्रवादियों ने गांधीजी के साथ कंधे से कंधा मिला लिया। इस घटना ने यह भी स्थापित कर दिया कि अँगरेज़ कतई भी भरोसे के लायक नहीं हैं। जब हण्टर समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो गांधीजी को लगा कि वह लीपापोती करने की कोशिश से अधिक कुछ न थी। ब्रिटिश संसद में पंजाब पर हुई बहस सुनने के बाद एक भारतीय संवाददाता ने गांधीजी को लिखा था : "हमारे मित्रों ने अपना अज्ञान प्रकट किया, हमारे शत्रुओं ने अपनी तिरस्कारपूर्ण ढिठाई।" 1919 की घटना, रॉलेट एक्ट, जालियावाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने यह जता दिया कि अंग्रेज़ी हुकूमत से सिवा दमन के और कुछ नहीं मिलने वाला है।

पंजाब के अत्याचारों के बाद भूल-सुधार के बजाय ब्रिटिश सरकार अपने अफसरों की करतूतों पर पर्दा डालने में लगी थी। ब्रिटिश संसद ने डायर के कारनामों को उचित करार दिया था। 'मॉर्निन्ग पोस्ट' ने जनरल डायर को अच्छी-खासी रकम भेंट देने के लिए 30 हज़ार पौंड का कोष जुटाया था, चंदा देने वालों में से एक था रुडयार्ड किपलिंग। यह सब देखकर गांधीजी की ब्रिटिश शासन में रही-सही आस्था भी चूर-चूर हो गई। उनका अब मानना था कि ऐसे 'शैतानी' शासन से असहयोग करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य था। गांधीजी ने देशवासियों को आश्वासन दिया था, "केवल एक हज़ार नहीं, हज़ारों-हज़ार असहाय शिशुओं और नारियों के हत्याकांड की संभावना में भी हम धैर्यपूर्वक तैयार रहें - तब तक तैयार रहें, जब तक सारी दुनिया के बीच भारत उस आसन पर न बैठ जाये, जिससे आगे कोई कभी न जा सके। फांसी को हमें जीवन को एक अत्यंत साधारण घटना मान लेना पड़ेगा।"

13 अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| इसके अलावा पंजाब,बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया| गांधीजी ने जब देखा था कि पूरा माहौल हिंसा की चपेट में है, तो 18 अप्रैल 1919 को उन्होंने सत्याग्रह आन्दोलन वापस ले लिया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी का अहिंसक आंदोलन से विश्वास उठ गया था। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे अंग्रेज़ों के कहर से डर गए थे। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे भारतीय जनता से निराश हो गए थे। इतिहासकार एपीजे टेलर के अनुसार, "जलियांवाला बाग हत्याकांड निर्णायक क्षण था जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अलग हो गए थे"। अमृतसर में जो हुआ उससे गांधी ने घोषणा कर दी कि 'शैतानी शासन' के साथ सहयोग अब असंभव था। इस घटना के बाद गांधीजी ने भारत से अंग्रेज़ों की जड़ उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया और एक साल बाद उन्होंने फिर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा, जो "रॉलेट सत्याग्रह" से भी अधिक व्यापक था! अब असहयोग आंदोलन का रास्ता तैयार था। वस्तुपरक दृष्टि से देखा जाए तो डायर ने ब्रिटिश राज के अंत की शुरुआत सुनिश्चित की।

For Quick Alerts
ALLOW NOTIFICATIONS  
For Daily Alerts

English summary
Here goes the explainer about Jallianwala Bagh massacre. This input about Jallianwala Bagh massacre will help you in many competitive exams like UPSC, Banking, SSC, etc.
--Or--
Select a Field of Study
Select a Course
Select UPSC Exam
Select IBPS Exam
Select Entrance Exam
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X