भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कविताएं

भारत के प्रसिद्ध लेखक, नाटाककार और कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 में, बनारस में हरिश्चंद्र के रूप में हुआ था। उनके पिता भी गोपाल चंद्र भी एक कवि थें। उनके द्वारा कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र पत्रिका, बाल वोधिनी आदि का संपादन किया और इन सभी को उन्होंने गिरधर दास के तौर पर लिखा था। 1880 में एक सार्वजनिक बैठक में काशी के विद्वानों द्वारा आधुनिकतावादी के रूप में उनकी सेवाओं को मान्यता प्राप्त हुई और उन्हें भारतेंदु की उपाधी प्राप्त हुई। भारतेंदु अर्थात भारत का चंद्रामा, इस प्रकार उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम से जाना गया। हरिश्चंद्र ने अपने समय काल में अपने कलम नाम 'रस' के माध्यम से उन मुद्दों और विषयों को उठाने के प्रयत्न किया जिसमें वह लोगों की पीड़ा को प्रदर्शित कर सकें। जिसमें देश की गरीबी, मध्य वर्ग की अशांती, देश की प्रगति की आवश्यकत आदि शामिल है। वह एक प्रभावशाली हिंदू परंपरावादी थें और उन्होंने हिंदू धर्म को परिभाषित करने के लिए वैष्णव भक्तिवाद का उपयोग किया था।

इसके साथ आपको बता दें कि रामविलास शर्मा "भारतेंदु के नेतृत्व में शुरू हुई महान साहित्यिक जागृति" और "पुनर्जागरण हिंदी के भवन की दूसरी मंजिल" को 1857 का भारतीय विद्रोह के रूप में संदर्भित करते हैं। भारतेंदु ने कई नाटक, कविताएं, जर्नल, निबंध और बंगाली नाटकों आदि को हिंदी में ट्रांसलेट किया है। भारतेंदु को हिंदी साहित्य और रंगमंच के जनक के रूप में भी जाना जाता है, ये उनकी लेखन कला के माध्यम से एक और महत्वपूर्ण उपाधी है। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य को बहुत महत्व दिया और एक लेखक के तौर पर 35 वर्ष कार्य कर सेवा की, 6 जनवरी 1885 में उनका निधन हो गया। इस साल उनकी 138वीं पुण्यतिथि पर उन्हें और उनके लेखन को याद कर हम आपके साथ उनकी कुछ शीर्ष कविताएं शेयर करने जा रहे हैं।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कविताएं

भारतेंदु हरिश्चंद्र की टॉप 10 कविताएं

1. नैन भरि देखौ गोकुल-चंद

नैन भरि देखौ गोकुल-चंद
श्याम बरन तन खौर बिराजत अति सुंदर नंद-नंद
विथुरी अलकैं मुख पै झलकैं मनु दोऊ मन के फंद
मुकुट लटक निरखत रबि लाजत छबि लखि होत अनंद
संग सोहत बृषभानु-नंदिनी प्रमुदित आनंद-कंद
'हरीचंद' मन लुब्ध मधुप तहं पीवत रस मकरंद

2. होली

कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥

पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।

भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।

कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुन्हें कछु लाज न आई।

3. ऊधो जो अनेक मन होते
ऊधो जो अनेक मन होते
तो इक श्याम-सुन्दर को देते, इक लै जोग संजोते।

एक सों सब गृह कारज करते, एक सों धरते ध्यान।
एक सों श्याम रंग रंगते, तजि लोक लाज कुल कान।

को जप करै जोग को साधै, को पुनि मूँदे नैन।
हिए एक रस श्याम मनोहर, मोहन कोटिक मैन।

ह्याँ तो हुतो एक ही मन, सो हरि लै गये चुराई।
'हरिचंद' कौउ और खोजि कै, जोग सिखावहु जाई॥

4. जागे मंगल-रूप सकल ब्रज-जन-रखवारे

जागे मंगल-रूप सकल ब्रज-जन-रखवारे
जागो नन्दानन्द -करन जसुदा के बारे
जागे बलदेवानुज रोहिनि मात-दुलारे
जागो श्री राधा के प्रानन तें प्यारे
जागो कीरति-लोचन-सुखद भानु-मान-वर्द्धित-करन
जागो गोपी-गो-गोप-प्रिय भक्त-सुखद असरन-सरन

5. दशरथ विलाप
कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।

बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
इसी के देखने को मैं बचा था ।।

छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।

छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।

बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।

किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।

गई संग में जनक की जो लली है
इसी में मुझको और बेकली है ।।

कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।

गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।

मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।

कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।

लगी है आग छाती में हमारे।
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।

मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।

अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।

मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।

हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।

कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।

कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।

हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।

जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।

कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।

न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।

मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।

मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।

कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।

कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।

मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।

कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।

6. इन दुखियन को न चैन सपनेहुं मिल्यौ
इन दुखियन को न चैन सपनेहुं मिल्यौ,
तासों सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी।

प्यारे 'हरिचंद जूं' की बीती जानि औध, प्रान
चाहते चले पै ये तो संग ना समायँगी।

देख्यो एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातैं,
जौन जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।

बिना प्रान प्यारे भए दरस तुम्हारे, हाय!
मरेहू पै आंखे ये खुली ही रहि जायँगी।

7. गंगा-वर्णन
नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत ।
जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥

सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥

श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥

शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥

सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

8. अब और प्रेम के फंद परे
अब और प्रेम के फंद परे
हमें पूछत- कौन, कहाँ तू रहै ।
अहै मेरेह भाग की बात अहो तुम
सों न कछु 'हरिचन्द' कहै ।
यह कौन सी रीति अहै हरिजू तेहि
भारत हौ तुमको जो चहै ।
चह भूलि गयो जो कही तुमने हम
तेरे अहै तू हमारी अहै ।

9. बसंत होली
जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत ।
बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।।

चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज ।
याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।।

परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग ।
तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।।

कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान ।
सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।।

है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय ।
साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।।

रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु ।
हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।।

मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज ।
रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।।

गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय ।
दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।।

हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय ।
मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।।

रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास ।
खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।।

चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र ।
तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।।

यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान ।
चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।।

परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात ।
टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।।

निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात ।
पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।।

टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत ।
गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।।

वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय ।
रति-रंजन 'हरिचंद' पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।

10. मातृभाषा प्रेम-दोहे
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।

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English summary
India's famous writer, dramatist and poet Bharatendu Harishchandra was born as Harishchandra on 9 September 1850, in Banaras. His father Gopal Chandra was also a poet. He edited Kavi Vachan Sudha, Harishchandra Patrika, Bal Vodhini etc. and he wrote all these as Girdhar Das. His services as a modernist were recognized by the scholars of Kashi in a public meeting in 1880 and he received the title of Bharatendu. Bharatendu means Moon of India, thus he came to be known as Bharatendu Harishchandra.
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