DR BR Ambedkar Essay Speech On Ambedkar Jayanti 2022 भारतीय इतिहास निश्चित रूप से कई देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों से भरा हुआ है। उन्हीं में से एक प्रसिद्ध नाम भीमराव रामजी अंबेडकर का है। आज बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर की 131वीं जयंती मनाई जा रही है। 14 अप्रैल 1891 में उनका जन्म तब के केंद्रीय प्रांत के महू जिले में रामजी मालोजी सकपाल के घर हुआ था। उनकी मां का नाम भीमाबाई था। बाबा साहब अंबेडकर की जयंती भारत के निर्माण में उनके अतुलनीय योगदान के लिए मनाई जाती है। बीआर अंबेडकर कौन थे? बीआर अंबेडकर एक राजनीतिज्ञ, न्यायविद, अर्थशास्त्री और समाज सुधारक थे। उन्होंने लोगों को बौद्ध आंदोलन से जोड़ा और बौद्ध धर्म अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। अछूतों के समर्थन में अंबेडकर ने अन्याय के खिलाफ कई अभियानों का नेतृत्व किया। वह स्वतंत्रता भारत के पहले कानून मंत्री भी थे। अंबेडकर ने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में मुख्य भूमिका निभाई थी।

बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर की कहानी काफी लंबी है और हर पढ़ा लिखा हिंदुस्तानी जानता है या उसने सुन रखी है कि किस तरह बाबा साहब का शुरुआती जीवन घोर नारकीय स्थितियों से गुजरा। फिर कैसे वह अपनी लगन और मेधा की बदौलत अपने दौर में सर्वाधिक शिक्षित लोगों में एक बनें और कैसे-कैसे उनका सामाजिक व राजनीतिक प्रभाव स्थापित हुआ। गांधी जी के बारे में कभी आइंस्टीन ने लिखा था कि एक दौर आयेगा, जब लोगों को यकीन ही नहीं होगा कि कभी महात्मा गांधी जैसा शख्स इस धरती में जीवित इंसान के रूप में मौजूद रहा है। ऐसा ही डॉ. भीमराव अंबेडकर के बारे में भी कहा जा सकता है। खुद गांधी जी कहा करते थे कि डॉ अंबेडकर की उपलब्धियां दृढ़ हौसेल का चमत्कारिक नतीजा हैं। जिन बाबा साहब अंबेडकर को प्राइमरी पढ़ाई के दौरान इसलिए पूरे-पूरे दिन प्यासे रहना पड़ता था कि वह स्कूल के किसी बर्तन से पानी नहीं पी सकते थे।
स्कूल प्रशासन मानता था कि अगर वह पानी पी लेंगे तो बर्तन अशुद्ध हो जायेगा। जिन बाबा साहब अंबेडकर को इसलिए सिर्फ संस्कृत की पढ़ाई से वंचित रहना पड़ा, क्योंकि संस्कृत के अध्यापक ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने से मना कर दिया और शायद इसके पीछे अवधारणा यह थी कि किसी अछूत को संस्कृत नहीं पढ़ायी जानी चाहिए। उन्हीं बाबा साहब अंबेडकर ने दो-दो पीएचडी, दो-दो परास्नातक डिग्रियों सहित अपने जीवन में कुल 27 अकादमिक डिग्रियां हासिल की थीं। जिन बाबा साहब को एक संस्कृत जानने से वंचित रखे जाने की कोशिश की गई, उन डॉ अंबेडकर ने दुनियाभर की तकरीबन 14 भाषाओं में महारत हासिल की थी। उन्होंने अपने स्वयं के प्रयास से संस्कृत का गहन अध्ययन भी किया था। वाकई ये सब कुछ चमत्कार के जैसा ही है। लेकिन ये चमत्कार नहीं था, यह उनके दृढ़ निश्चय, अटूट हौसले और अपमान की उस पीड़ा को परिवर्तन के परिणाम में बदल देने जिद का नतीजा था। जिस अपमान और पीड़ा को उन्होंने अपने शुरुआती जीवन में बहुत लंबे समय तक झेला था।
लेकिन बाबा साहब अंबेडकर की जिंदगी की पटकथा की खूबसूरती यही थी कि उन्होंने अपने जीवन में न सिर्फ अपने तमाम अपमानों से कहीं ज्यादा सम्मान हासिल किया बल्कि जिन स्थितियों से उन्हें गुजरना पड़ा, बाद में उन स्थितियों के उन्मूलन का उन्हें ही जरिया बनने का गौरव भी हासिल हुआ। यह महान उपलब्धि है और दुनिया में गिनेचुने महापुरुषों को ही उनके जीते जी हासिल हुआ है। डॉ अंबेडकर की अपने दौर में ही इतनी प्रतिष्ठा हो चुकी थी कि गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए जब वह पहुंचते थे तो तमाम अंग्रेज अपनी कुर्सियों से उठकर उनका अभिनंदन किया करते थे। वह अपने दौर में अकेले ऐसे शख्स थे, जो महात्मा गांधी के जैसी प्रतिष्ठा हासिल कर चुके थे। आज भी माना जा रहा है कि अगर गांधीजी के बाद भारतीय मुद्रा में किसी शख्स की तस्वीर छप सकती है तो वह डॉ अंबेडकर ही हैं। कहने का मतलब यह है कि अगर डॉ अंबेडकर को बहुत-बहुत अपमान झेलना पड़ा, जो किस्से कहानियों तक को शर्मसार करता है, तो उन्हें बहुत-बहुत सम्मान भी मिला, जो उनकी प्रतिष्ठा तो दर्शाता ही है, उनकी प्रतिष्ठा को चमत्कार की हद तक ले जाता है। डॉ अंबेडकर ने यह तमाम सम्मान और प्रतिष्ठा अपनी विद्वता, अपनी वैचारिकता और अपनी नैतिकता के चलते हासिल की थी।
आजादी के बाद सिर्फ दो लोगों की प्रतिष्ठा न सिर्फ निरंतर बढ़ी है बल्कि हर गुजरते दिन के साथ ये दोनो और ज्यादा महान और तकरीबन अकल्पनीय होते जा रहे हैं। ये दोनो महापुरुष हैं- महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर। लेकिन यह भी एक चिंता का विषय है कि जिस तरह से अतिशय सम्मान की चादर उढ़ाकर महात्मा गांधी को धीरे-धीरे देव प्रतिमा में बदल दिया गया है, ठीक वही काम अब पूरे जोरशोर के साथ बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर को लेकर भी हो रहा है। डॉ भीमराव अंबेडकर लोकतंत्र के प्रतीक पुरुष हैं और आज सभी राजनीतिक पार्टियां तुष्टिकरण के खेल में डॉ अंबेडकर को ही अर्थहीन बना देना चाहती हैं।
आज डॉ अंबेडकर की पूजा, अर्चना और उनकी भक्ति इसलिए की जा रही है; क्योंकि न सिर्फ देश के 20 करोड़ दलितों में बल्कि देश के तमाम दबे, कुचले, वंचित, पराजित और हांशिये पर खड़े लोगों की डॉ अंबेडकर पर घोर आस्था है। वह अपनी मुक्ति का रास्ता डॉ अंबेडकर के संविधान और उनकी वैचारिक रोशनी में ही देख रहे हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां जानती हैं कि आज की वोट की राजनीति के लिए डॉ अंबेडकर कितने अपरिहार्य हो गये हैं। यह अकारण नहीं है कि कल जब ये पंक्तियां छपकर पाठकों के हाथ में होंगी, उस समय पूरे देश में डॉ अंबेडकरमय माहौल होगा। छोटे-बड़े कोई 400 तो सिर्फ सरकारी कार्यक्रम ही कल पूरे देश में हो रहे हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से लेकर हर राजनीतिक पार्टी का मुखिया कल उनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करने में व्यस्त रहेगा और हजारों-लाखों नहीं बल्कि करोड़ों-अरबों शब्दों से उनका स्तुतिगान होगा।
लेकिन क्या ठीक उसी समय इस बात पर गौर फरमाया जायेगा कि आखिर देश की आजादी के 7 दशक गुजर जाने के बाद भी, आज भी दलितों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार क्यों नहीं हुआ? क्यों आज भी 70 फीसदी से ज्यादा दलित गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं? क्यों आज भी किसी भी समुदाय के मुकाबले दलितों के प्रति 200 फीसदी से ज्यादा अत्याचार हो रहा है? क्यों आज भी उनकी आय देश के दूसरे वर्गों और जातियों के मुकाबले 300 फीसदी पीछे है? अगर राजनीतिक पार्टियों को सचमुच डॉ भीमराव अंबेडकर से प्यार है, उनके प्रति इनमें सम्मान की भावना है तो इन सवालों का जवाब देना होगा, वरना यही माना जायेगा कि डॉ अंबेडकर की यह प्रतिष्ठा उन्हें स्टेच्यू बनाने की प्रक्रियाभर है।
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